" भगत सिंह विचार माला "
मंगलवार, 12 मार्च 2019
शनिवार, 25 मार्च 2017
वीडी सावरकर की याचिका सेल्युलर जेल, अंडमान, 1913
महान क्रांतिकारी भगत सिंह और उनके साथियों ने ब्रिटिश सरकार से कहा कि उनके साथ राजनीतिक बंदी जैसा ही व्यवहार किया जाए और फांसी देने की जगह गोलियों से भून दिया जाए. जबकि हिंदू राष्ट्रवादी सावरकर ने अपील की कि उन्हें छोड़ दिया जाए तो आजीवन क्रांति से किनारा कर लेंगे.
वीडी सावरकर की याचिका
सेल्युलर जेल, अंडमान, 1913
सेवा में, गृह सदस्य, भारत सरकार
मैं आपके सामने दयापूर्वक विचार के लिए निम्नलिखित बिंदु प्रस्तुत करने की याचना करता हूं:
(1) 1911 के जून में जब मैं यहां आया, मुझे अपनी पार्टी के दूसरे दोषियों के साथ चीफ कमिश्नर के ऑफिस ले जाया गया. वहां मुझे ‘डी’ यानी डेंजरस (ख़तरनाक) श्रेणी के क़ैदी के तौर पर वर्गीकृत किया गया; बाक़ी दोषियों को ‘डी’ श्रेणी में नहीं रखा गया. उसके बाद मुझे पूरे छह महीने एकांत कारावास में रखा गया. दूसरे क़ैदियों के साथ ऐसा नहीं किया गया. उस दौरान मुझे नारियल की धुनाई के काम में लगाया गया, जबकि मेरे हाथों से ख़ून बह रहा था. उसके बाद मुझे तेल पेरने की चक्की पर लगाया गया जो कि जेल में कराया जाने वाला सबसे कठिन काम है. हालांकि, इस दौरान मेरा आचरण असाधारण रूप से अच्छा रहा, लेकिन फिर भी छह महीने के बाद मुझे जेल से रिहा नहीं किया गया, जबकि मेरे साथ आये दूसरे दोषियों को रिहा कर दिया गया. उस समय से अब तक मैंने अपना व्यवहार जितना संभव हो सकता है, अच्छा बनाए रखने की कोशिश की है.
(2) जब मैंने तरक्की के लिए याचिका लगाई, तब मुझे कहा गया कि मैं विशेष श्रेणी का क़ैदी हूं और इसलिए मुझे तरक्की नहीं दी जा सकती. जब हम में से किसी ने अच्छे भोजन या विशेष व्यवहार की मांग की, तब हमें कहा गया कि ‘तुम सिर्फ़ साधारण क़ैदी हो, इसलिए तुम्हें वही भोजन खाना होगा, जो दूसरे क़ैदी खाते हैं.’ इस तरह श्रीमान आप देख सकते हैं कि हमें विशेष कष्ट देने के लिए हमें विशेष श्रेणी के क़ैदी की श्रेणी में रखा गया है.
(3) जब मेरे मुक़दमे के अधिकतर लोगों को जेल से रिहा कर दिया गया, तब मैंने भी रिहाई की दरख़्वास्त की. हालांकि, मुझ पर अधिक से अधिक तो या तीन बार मुक़दमा चला है, फिर भी मुझे रिहा नहीं किया गया, जबकि जिन्हें रिहा किया गया, उन पर तो दर्जन से भी ज़्यादा बार मुक़दमा चला है. मुझे उनके साथ इसलिए नहीं रिहा गया क्योंकि मेरा मुक़दमा उनके साथ चल रहा था. लेकिन जब आख़िरकार मेरी रिहाई का आदेश आया, तब संयोग से कुछ राजनीतिक क़ैदियों को जेल में लाया गया, और मुझे उनके साथ बंद कर दिया गया, क्योंकि मेरा मुक़दमा उनके साथ चल रहा था.
(4) अगर मैं भारतीय जेल में रहता, तो इस समय तक मुझे काफ़ी राहत मिल गई होती. मैं अपने घर ज़्यादा पत्र भेज पाता; लोग मुझसे मिलने आते. अगर मैं साधारण और सरल क़ैदी होता, तो इस समय तक मैं इस जेल से रिहा कर दिया गया होता और मैं टिकट-लीव की उम्मीद कर रहा होता. लेकिन, वर्तमान समय में मुझे न तो भारतीय जेलों की कोई सुविधा मिल रही है, न ही इस बंदी बस्ती के नियम मुझ पर पर लागू हो रहे हैं. जबकि मुझे दोनों की असुविधाओं का सामना करना पड़ रहा है.
(5) इसलिए हुजूर, क्या मुझे भारतीय जेल में भेजकर या मुझे दूसरे क़ैदियों की तरह साधारण क़ैदी घोषित करके, इस विषम परिस्थिति से बाहर निकालने की कृपा करेंगे? मैं किसी तरजीही व्यवहार की मांग नहीं कर रहा हूं, जबकि मैं मानता हूं कि एक राजनीतिक बंदी होने के नाते मैं किसी भी स्वतंत्र देश के सभ्य प्रशासन से ऐसी आशा रख सकता था. मैं तो बस ऐसी रियायतों और इनायतों की मांग कर रहा हूं, जिसके हक़दार सबसे वंचित दोषी और आदतन अपराधी भी माने जाते हैं. मुझे स्थायी तौर पर जेल में बंद रखने की वर्तमान योजना को देखते हुए मैं जीवन और आशा बचाए रखने को लेकर पूरी तरह से नाउम्मीद होता जा रहा हूं. मियादी क़ैदियों की स्थिति अलग है. लेकिन श्रीमान मेरी आंखों के सामने 50 वर्ष नाच रहे हैं. मैं इतने लंबे समय को बंद कारावास में गुजारने के लिए नैतिक ऊर्जा कहां से जमा करूं, जबकि मैं उन रियायतों से भी वंचित हूं, जिसकी उम्मीद सबसे हिंसक क़ैदी भी अपने जीवन को सुगम बनाने के लिए कर सकता है? या तो मुझे भारतीय जेल में भेज दिया जाए, क्योंकि मैं वहां (ए) सज़ा में छूट हासिल कर सकता हूं; (बी) वहां मैं हर चार महीने पर अपने लोगों से मिल सकूंगा. जो लोग दुर्भाग्य से जेल में हैं, वे ही यह जानते हैं कि अपने सगे-संबंधियों और नज़दीकी लोगों से जब-तब मिलना कितना बड़ा सुख है! (सी) सबसे बढ़कर मेरे पास भले क़ानूनी नहीं, मगर 14 वर्षों के बाद रिहाई का नैतिक अधिकार तो होगा. या अगर मुझे भारत नहीं भेजा सकता है, तो कम से कम मुझे किसी अन्य क़ैदी की तरह जेल के बाहर आशा के साथ निकलने की इजाज़त दी जाए, 5 वर्ष के बाद मुलाक़ातों की इजाज़त दी जाए, मुझे टिकट लीव दी जाए, ताकि मैं अपने परिवार को यहां बुला सकूं. अगर मुझे ये रियायतें दी जाती हैं, तब मुझे सिर्फ़ एक बात की शिकायत रहेगी कि मुझे सिर्फ़ मेरी ग़लती का दोषी मान जाए, न कि दूसरों की ग़लती का. यह एक दयनीय स्थिति है कि मुझे इन सारी चीज़ों के लिए याचना करनी पड़ रही है, जो सभी इनसान का मौलिक अधिकार है! ऐसे समय में जब एक तरफ यहां क़रीब 20 राजनीतिक बंदी हैं, जो जवान, सक्रिय और बेचैन हैं, तो दूसरी तरफ बंदी बस्ती के नियम-क़ानून हैं, जो विचार और अभिव्यक्ति की आज़ादी को न्यूनतम संभव स्तर तक महदूर करने वाले हैं; यह अवश्यंवभावी है कि इनमें से कोई, जब-तब किसी न किसी क़ानून को तोड़ता हुआ पाया जाए. अगर ऐसे सारे कृत्यों के लिए सारे दोषियों को ज़िम्मेदार ठहराया जाए, तो बाहर निकलने की कोई भी उम्मीद मुझे नज़र नहीं आती.
अंत में, हुजूर, मैं आपको फिर से याद दिलाना चाहता हूं कि आप दयालुता दिखाते हुए सज़ा माफ़ी की मेरी 1911 में भेजी गयी याचिका पर पुनर्विचार करें और इसे भारत सरकार को फॉरवर्ड करने की अनुशंसा करें.
भारतीय राजनीति के ताज़ा घटनाक्रमों और सबको साथ लेकर चलने की सरकार की नीतियों ने संविधानवादी रास्ते को एक बार फिर खोल दिया है. अब भारत और मानवता की भलाई चाहने वाला कोई भी व्यक्ति, अंधा होकर उन कांटों से भरी राहों पर नहीं चलेगा, जैसा कि 1906-07 की नाउम्मीदी और उत्तेजना से भरे वातावरण ने हमें शांति और तरक्की के रास्ते से भटका दिया था.
इसलिए अगर सरकार अपनी असीम भलमनसाहत और दयालुता में मुझे रिहा करती है, मैं आपको यक़ीन दिलाता हूं कि मैं संविधानवादी विकास का सबसे कट्टर समर्थक रहूंगा और अंग्रेज़ी सरकार के प्रति वफ़ादार रहूंगा, जो कि विकास की सबसे पहली शर्त है.
जब तक हम जेल में हैं, तब तक महामहिम के सैकड़ों-हजारें वफ़ादार प्रजा के घरों में असली हर्ष और सुख नहीं आ सकता, क्योंकि ख़ून के रिश्ते से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता. अगर हमें रिहा कर दिया जाता है, तो लोग ख़ुशी और कृतज्ञता के साथ सरकार के पक्ष में, जो सज़ा देने और बदला लेने से ज़्यादा माफ़ करना और सुधारना जानती है, नारे लगाएंगे.
इससे भी बढ़कर संविधानवादी रास्ते में मेरा धर्म-परिवर्तन भारत और भारत से बाहर रह रहे उन सभी भटके हुए नौजवानों को सही रास्ते पर लाएगा, जो कभी मुझे अपने पथ-प्रदर्शक के तौर पर देखते थे. मैं भारत सरकार जैसा चाहे, उस रूप में सेवा करने के लिए तैयार हूं, क्योंकि जैसे मेरा यह रूपांतरण अंतरात्मा की पुकार है, उसी तरह से मेरा भविष्य का व्यवहार भी होगा. मुझे जेल में रखने से आपको होने वाला फ़ायदा मुझे जेल से रिहा करने से होने वाले होने वाले फ़ायदे की तुलना में कुछ भी नहीं है.
जो ताक़तवर है, वही दयालु हो सकता है और एक होनहार पुत्र सरकार के दरवाज़े के अलावा और कहां लौट सकता है. आशा है, हुजूर मेरी याचनाओं पर दयालुता से विचार करेंगे.
वीडी सावरकर
(स्रोत: आरसी मजूमदार, पीनल सेटलमेंट्स इन द अंडमान्स, प्रकाशन विभाग, 1975)
महान क्रांतिकारी भगत सिंह और उनके साथियों ने ब्रिटिश सरकार से कहा कि उनके साथ राजनीतिक बंदी जैसा ही व्यवहार किया जाए और फांसी देने की जगह गोलियों से भून दिया जाए
भगत सिंह की अंतिम याचिका
लाहौर जेल, 1931
सेवा में, गवर्नर पंजाब, शिमला
महोदय,
उचित सम्मान के साथ हम नीचे लिखी बातें आपकी सेवा में रख रहे हैं-
भारत की ब्रिटिश सरकार के सर्वोच्च अधिकारी वाइसराय ने एक विशेष अध्यादेश जारी करके लाहौर षड्यंत्र अभियोग की सुनवाई के लिए एक विशेष न्यायधिकरण (ट्रिब्यूनल) स्थापित किया था, जिसने 7 अक्तूबर, 1930 को हमें फांसी का दण्ड सुनाया.हमारे विरुद्ध सबसे बड़ा आरोप यह लगाया गया है कि हमने सम्राट जार्ज पंचम के विरुद्ध युद्ध किया है.
न्यायालय के इस निर्णय से दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं-
पहली यह कि अंग्रेज़ जाति और भारतीय जनता के मध्य एक युद्ध चल रहा है. दूसरी यह है कि हमने निश्चित रूप में इस युद्ध में भाग लिया है. अत: हम युद्धबंदी हैं.
यद्यपि इनकी व्याख्या में बहुत सीमा तक अतिशयोक्ति से काम लिया गया है, तथापि हम यह कहे बिना नहीं रह सकते कि ऐसा करके हमें सम्मानित किया गया है. पहली बात के सम्बन्ध में हम तनिक विस्तार से प्रकाश डालना चाहते हैं. हम नहीं समझते कि प्रत्यक्ष रूप में ऐसी कोई लड़ाई छिड़ी हुई है. हम नहीं जानते कि युद्ध छिड़ने से न्यायालय का आशय क्या है? परन्तु हम इस व्याख्या को स्वीकार करते हैं और साथ ही इसे इसके ठीक संदर्भ में समझाना चाहते हैं .
हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा है- चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज़ पूंजीपति और अंग्रेज़ या सर्वथा भारतीय ही हों, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है. चाहे शुद्ध भारतीय पूंजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का ख़ून चूसा जा रहा हो तो भी इस स्थिति में कोई अंतर नहीं पड़ता.
यदि आपकी सरकार कुछ नेताओं या भारतीय समाज के मुखियों पर प्रभाव जमाने में सफल हो जाए, कुछ सुविधाएं मिल जाएं, अथवा समझौते हो जाएं, इससे भी स्थिति नहीं बदल सकती, तथा जनता पर इसका प्रभाव बहुत कम पड़ता है. हमें इस बात की भी चिंता नही कि युवकों को एक बार फिर धोखा दिया गया है और इस बात का भी भय नहीं है कि हमारे राजनीतिक नेता पथ-भ्रष्ट हो गए हैं और वे समझौते की बातचीत में इन निरपराध, बेघर और निराश्रित बलिदानियों को भूल गए हैं, जिन्हें दुर्भाग्य से क्रांतिकारी पार्टी का सदस्य समझा जाता है.
हमारे राजनीतिक नेता उन्हें अपना शत्रु मानते हैं, क्योंकि उनके विचार में वे हिंसा में विश्वास रखते हैं, हमारी वीरांगनाओं ने अपना सब कुछ बलिदान कर दिया है. उन्होंने अपने पतियों को बलिवेदी पर भेंट किया, भाई भेंट किए, और जो कुछ भी उनके पास था सब न्यौछावर कर दिया. उन्होंने अपने आप को भी न्यौछावर कर दिया परन्तु आपकी सरकार उन्हें विद्रोही समझती है. आपके एजेंट भले ही झूठी कहानियां बनाकर उन्हें बदनाम कर दें और पार्टी की प्रसिद्धि को हानि पहुंचाने का प्रयास करें, परन्तु यह युद्ध चलता रहेगा.
हो सकता है कि यह लड़ाई भिन्न-भिन्न दशाओं में भिन्न-भिन्न स्वरूप ग्रहण करे. किसी समय यह लड़ाई प्रकट रूप ले ले, कभी गुप्त दशा में चलती रहे, कभी भयानक रूप धारण कर ले, कभी किसान के स्तर पर युद्ध जारी रहे और कभी यह घटना इतनी भयानक हो जाए कि जीवन और मृत्यु की बाज़ी लग जाए. चाहे कोई भी परिस्थिति हो, इसका प्रभाव आप पर पड़ेगा. यह आप की इच्छा है कि आप जिस परिस्थिति को चाहे चुन लें, परन्तु यह लड़ाई जारी रहेगी.
इसमें छोटी-छोटी बातों पर ध्यान नहीं दिया जाएगा. बहुत संभव है कि यह युद्ध भयंकर स्वरूप ग्रहण कर ले. पर निश्चय ही यह उस समय तक समाप्त नहीं होगा जब तक कि समाज का वर्तमान ढांचा समाप्त नहीं हो जाता, प्रत्येक वस्तु में परिवर्तन या क्रांति समाप्त नहीं हो जाती और मानवी सृष्टि में एक नवीन युग का सूत्रपात नही हो जाता.
निकट भविष्य में अन्तिम युद्ध लड़ा जाएगा और यह युद्ध निर्णायक होगा. साम्राज्यवाद व पूंजीवाद कुछ दिनों के मेहमान हैं. यही वह लड़ाई है जिसमें हमने प्रत्यक्ष रूप से भाग लिया है और हम अपने पर गर्व करते हैं कि इस युद्ध को न तो हमने प्रारम्भ ही किया है और न यह हमारे जीवन के साथ समाप्त ही होगा. हमारी सेवाएं इतिहास के उस अध्याय में लिखी जाएंगी जिसको यतीन्द्रनाथ दास और भगवतीचरण के बलिदानों ने विशेष रूप में प्रकाशमान कर दिया है. इनके बलिदान महान हैं.
जहां तक हमारे भाग्य का संबंध है, हम ज़ोरदार शब्दों में आपसे यह कहना चाहते हैं कि आपने हमें फांसी पर लटकाने का निर्णय कर लिया है. आप ऐसा करेंगे ही, आपके हाथों में शक्ति है और आपको अधिकार भी प्राप्त है. परन्तु इस प्रकार आप जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला सिद्धान्त ही अपना रहे हैं और आप उस पर कटिबद्ध हैं. हमारे अभियोग की सुनवाई इस बात को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि हमने कभी कोई प्रार्थना नहीं की और अब भी हम आपसे किसी प्रकार की दया की प्रार्थना नहीं करते.
हम आप से केवल यह प्रार्थना करना चाहते हैं कि आपकी सरकार के ही एक न्यायालय के निर्णय के अनुसार हमारे विरुद्ध युद्ध जारी रखने का अभियोग है. इस स्थिति में हम युद्धबंदी हैं, अत: इस आधार पर हम आपसे मांग करते हैं कि हमारे प्रति युद्धबन्दियों-जैसा ही व्यवहार किया जाए और हमें फांसी देने के बदले गोली से उड़ा दिया जाए.
अब यह सिद्ध करना आप का काम है कि आपको उस निर्णय में विश्वास है जो आपकी सरकार के न्यायालय ने किया है. आप अपने कार्य द्वारा इस बात का प्रमाण दीजिए. हम विनयपूर्वक आप से प्रार्थना करते हैं कि आप अपने सेना-विभाग को आदेश दे दें कि हमें गोली से उड़ाने के लिए एक सैनिक टोली भेज दी जाए.
आपका
भगत सिंह
(स्रोत: भगत सिंह और साथियों के संपूर्ण दस्तावेज, राहुल फाउंडेशन)
गुरुवार, 23 मार्च 2017
गुरुवार, 14 जुलाई 2016
इसलिए राह संघर्ष की हम चुनें,
जिंदगी आंसुओं में नहाई न हो.
शाम सहमी न हो, रात हो न डरी,
भोर की आँख फिर, डबडबायी न हो.
सूर्य पर बादलों का न पहरा रहे,
रौशनी, रोशनाई में डूबी न हो.
आस्मां में टंगी हो न खुशहालियाँ,
क़ैद महलों में सबकी कमाई न हो.
हो किसी के लिए मखमली बिस्तरा,
और किसी के लिए, एक चटाई न हो.
अब तमन्नाएं फिर न करें ख़ुदकुशी,
ख़वाब पर खौफ की चौकसी न हो.
दम न तोड़े कहीं भूख से बचपना,
रोटियों के लिए अब लड़ाई न हो...
जिंदगी आंसुओं में नहाई न हो.
शाम सहमी न हो, रात हो न डरी,
भोर की आँख फिर, डबडबायी न हो.
सूर्य पर बादलों का न पहरा रहे,
रौशनी, रोशनाई में डूबी न हो.
आस्मां में टंगी हो न खुशहालियाँ,
क़ैद महलों में सबकी कमाई न हो.
हो किसी के लिए मखमली बिस्तरा,
और किसी के लिए, एक चटाई न हो.
अब तमन्नाएं फिर न करें ख़ुदकुशी,
ख़वाब पर खौफ की चौकसी न हो.
दम न तोड़े कहीं भूख से बचपना,
रोटियों के लिए अब लड़ाई न हो...
मंगलवार, 5 अप्रैल 2016
लाहौर नेशनल कॉलेज में भगत सिंह -छबीलदास
लाहौर नेशनल कॉलेज में भगत सिंह -छबीलदास
भगत सिंह जहां एक जोशीला इंकलाबी था वह
एक बहुत अच्छा विद्यार्थी भी था। उसके अध्यापक होने के नाते मैं यह बात दावे से कह
सकता हूं कि उसे पढ़ाने में बहुत आनन्द आता था। भगत सिंह को पढ़ने का बेहद शौक था।
जब किसी भी किताब का नाम उसके सामने लिया गया तो उसने फौरन उसे पढ़ने की फरमाइश की।
वैसे तो भगत सिंह ने न जाने इतिहास की कितनी ही किताबें पढ़ डाली होंगी लेकिन मुझे
अभी तक याद है कि उसे जो किताब सबसे ज्यादा पसंद थी वह
'क्राइ फॉर जस्टिस' थी। भगत सिंह ने लाल पेंसिल
से इस किताब के बहुत हिस्सों पर निशान लगाए थे। इनसे पता चलता था कि उसके हृदय में
बेइन्साफी के खिलाफ लड़ने की भावना किस तरह कूट-कूट कर भरी हुई थी। वह पुस्तक लाजपतराय
भवन लाहौर में हमारे घर में वर्षों तक रही। स्वयं मेरे बच्चों विजय, सन्तोष और मनोरमा ने कई बार इस किताब को लेकर मुझसे ढेरों सवाल पूछे। मेरे
बच्चे भी यह जानना चाहते थे कि भगत सिंह को कौन-सी किताब पसंद थी और क्यों
?
भगत सिंह को पढ़ने की आदत तो इतनी प्रबल
थी कि जिस दिन उसे फांसी लगाई गई उस दिन भी वह अपने नियमानुसार किताब पढ़ने में मगन
था। तो स्वयं उन दिनों जेल में था लेकिन जेल ही से मिलने वाली रिपोर्टों से पता चलता
था कि जिस दिन भगत सिंह को फांसी लगनी थी उस दिन उसके चेहरे पर परेशानी और गम की कोई
झलक दिखाई नहीं पड़ती थी। जब वार्डन ने उससे आकर तैयार होने को कहा कि जेल के नियमों
के अनुसार हर कैदी को बाकायदा नहा-धोकर कपड़े बदलवाकर और उसकी कोई अंतिम इच्छा हो तो
उसे पूरी करके फांसी के तख्ते पर ले जाया जाता है, कहते
हैं भगत सिंह ने हंसते-हंसते यही कहा था कि भाई पहले मुझे अपनी किताब तो पूरी कर लेने
दो। भगत सिंह उस समय लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे। एक नौजवान जो जानता था कि कुछ ही घंटे
बाद उसे फांसी के तख्ते पर लटकाया जाना है अगर अपनी कोई प्रिय पुस्तक पढ़ने में मगन
रहे तो उससे यही अन्दाजा लगाया जा सकता है कि वह सचमुच एक अनोखे इरादे का व्यक्ति होगा।
मैंने नेशनल कॉलेज में और बाहर भी भगत
सिंह को हमेशा हंसते हुए देखा। लेकिन उस हंसी के पीछे भी उसका पक्का इरादा और अपने
मकसद को पूरा करने की भावना झलकती थी। लगता था कि भगत सिंह को जीवन के सांसारिक बंधनों
से गहरी चिढ़ थी इसलिए उसने कभी शादी करवाने की हामी नहीं भरी। बहुत साल बाद भगत सिंह
की माताजी उसके विषय में बातचीत करते हुए बताती थीं कि वह हमेशा हंसकर यही कहता था-
बेबे तुम परेशान न हुआ करो, तुम्हारे
लिए एक अनोखी दुल्हन ब्याह कर लाऊंगा। भगत सिंह का मतलब हिंदुस्तान की आजादी से था।
जब भगत सिंह की मां श्रीमती विद्यावती फांसी लगने से कुछ दिन पहले अपने बेटे से मिलने
गईं तब भी वह जोरों से हंस रहा था और मां को दिलासा दिलाने के लिए बार-बार यही कहता
कि भारत को जल्दी ही आजादी मिलेगी और उसे तो खुशी होनी चाहिए कि उसका बेटा किसी मकसद
के लिए मरने जा रहा है। लोग तो बीमारियों से भी मरते हैं। लेकिन कितने खुश किस्मत ऐसे
हैं जिन्हें देशभक्ति और वतनपरस्ती के इल्जाम में फांसी का तख्ता नसीब होता है।
भगत सिंह को विश्वास था कि शादी का बंधन
इंकलाब के रास्ते में बहुत भारी रुकावट है। मुझे याद है एक बार लाहौर में दरिया रावी
में मैं और भगत सिंह कश्ती की सैर कर रहे थे, मेरी
तरह भगत सिंह को भी दरिया में कश्ती की सैर का बहुत शौक था। उस वक्त शाम का अंधेरा
होने ही वाला था। भगत सिंह ने हंसते हुए मुझसे पूछा-'गुरुजी सुना
है आप शादी कर रहे हैं? क्या यह खबर ठीक है' जब मैंने कहा, 'हां' तो भगत सिंह
एकदम से कहने लगा 'फिर इंकलाब कैसे आएगा? आप घर गृहस्थी में पड़ जाएंगे या मुझ जैसे नौजवानों को इंकलाब का सबक पढ़ायेंगे?
मैंने महसूस किया भगत सिंह को मेरी शादी करने का फैसला पसंद नहीं आया।
मैंने भगत सिंह को बताया कि मैं जिस लड़की
से शादी कर रहा
हूं वह कोई मामूली लड़की नहीं है बल्कि स्वयं एक आदर्शवादी और क्रांतिकारी
विचारों के व्यक्ति की बेटी है। मुझे प्रसन्नता है कि स्वतंत्रता संग्राम में लड़ने
के लिए मुझे एक सहयोगी और मिल गया है। मेरा वह जवाब सुनकर भगत सिंह हंसने लगा लेकिन
मुझे उस समय ही यह एहसास हो गया था कि भगत सिंह को मेरे जवाब से सन्तोष नहीं हुआ था।
वह यही सोच रहा था कि उसके गुरुजी ने अपनी जिंदगी का यह गलत फैसला किया था।
लेकिन मेरी पत्नी सीता देवी ने जिस तरह
सक्रियता से स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लिया, बार-बार
जेल यात्रा की और आजादी मिल जाने के बाद भी उन्होंने महिलाओं व मजदूरों के अधिकारों
के संघर्ष को अपना मकसद बनाये रखा था, उसने हमेशा मुझे यही एहसास
दिया कि चाहे भगत सिंह को मेरा फैसला कितना भी नापसंद था लेकिन मेरा फैसला गलत नहीं
था।
हमारे सौभाग्य में जिन दिनों देश भर में
महात्मा गांधी तथा स्वराज्य आंदोलन की लहर मची हुई थी,
उन्हीं दिनों विदेशी विशेषत: आयरलैंड तथा सोवियत रूस से धड़ाधड़ राजनीतिक
लिटरेचर, किताबें, टेक्स्ट, अखबारों और मैग्जीनों का आना शुरू हो गया था। आयरिश लिटरेचर तो केवल यही नारा
लगाता था कि किसी भी देश अथवा जाति को आजादी प्राप्त करने के लिए बन्दूकों,
पिस्तौलों, बमों तथा हवाई जहाजों की भारी जरूरत
होती है। भारत में अंग्रेजी शासन अपनी फौजों तथा छावनियों से सशस्त्रा सैनिकों तथा
टैंकों द्वारा स्थापित हुआ है और अब तक चल रहा है। बाइबिल में स्पष्ट घोषणा दी गयी
है कि 'इफ यू हैव फेथ इन द सोर्ड, बाई द
सोर्ड यू शैल बी पनिश्ड' अर्थात् यदि तुम तलवारों और बंदूकों
द्वारा किसी को गुलाम बनाते हो तो समय और अवसर आने पर वही लोग तुमसे अधिक तेजतर शस्त्रों
व बंदूकों से तुम्हें अपने हाथ से धकेल कर बाहर करेंगे। अत: यदि सचमुच ही भारत की जनता
अपनी दासता का जुआ अपनी गरदन से उतार फेंकना चाहती है तो किसी न किसी ढंग से अणु शस्त्र
प्राप्त करे। वे साधन बेग-बारो-स्टील अर्थात् कहीं से मांगकर, उधार लेकर अथवा जबर्दस्ती कहीं से चुराकर अथवा लूटकर प्राप्त करे ।
हमारा दूसरा पड़ोसी देश जो हमें धड़ाधड़
अपना साहित्य भेज रहा था वह था सोवियत रूस जिसने 1917 में देश के किसानों तथा मजदूरों
के बलबूते पर अपने देश में किसानों और मजदूरों का शासन स्थापित कर लिया था और सदियों
की तानाशाही के जुए को अपनी गर्दन से उतार फेंका। नौजवान भारत सभा के एक दल ने आयरिश
ढंग को अपनाकर और अस्त्र जमा करके अपना काम शुरू कर दिया। भारत की सेंट्रल असेंबली
के अधिवेशन में बम फेंककर बहरे कान को सुनाने के लिए ऊंची आवाज की जरूरत होती है वाले
पोस्टर भी फेंके थे। फिर उन्होंने हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन के समीप ही मद्रास
से लौटते हुए वायसराय की ट्रेन पर बम चलाने का प्रोग्राम भी पूरा किया। फिर पंजाब के
बड़े-बड़े शहरों जैसे लाहौर, अमृतसर,
गुंजरांवाला, लायलपुर और रावलपिंडी आदि में एक
ही दिन एक ही समय में बम चलाने का कार्य पूरा किया। राजधानी दिल्ली के चांदनी चौक बाजार
में लार्ड हार्डिंग वायसराय के जलूस वाले हाथी पर भी बम चला दिया जिसमें हाथी का महावत
तथा उसका लड़का तत्काल ही दम तोड़ गए। लेडी हार्डिंग की गर्दन पर छह इंच गहरा जख्म
लगा और लार्ड हार्डिगं स्वयं बेहोश हो गए। बंगला में कुछ पोस्टर भी फेंके जिसमें लिखा
था कि हम अंग्रेज हुकूमत को सचेत करना चाहते हैं कि अंग्रेजी शासन के विरोधी तथा शत्रु
केवल बंगाल एवं कलकत्ता में ही नहीं बसते। अब वे भारत में जिस भाग में भी कदम रखेंगे
वहीं अपने शत्रु तथा जानलेवा मौजूद पायेंगे।
आजादी का साहित्य तैयार करने वालों तथा
नौजवान भारत सभा में कांगड़े वाले लेखक रामचंद्र और मिंटगुमरी के मेहता सत्यपाल इत्यादि
सम्मिलित थे। जिन्होंने दो-दो पैसे वाले टैक्स्ट उर्दू भाषा में हजारों की संख्या में
छापकर पंजाब के गांव-गांव व कोने-कोने में बांटना और बेचना शुरू कर दिया। हमारा सबसे
प्रथम टैक्स्ट भारतमाता के दर्शन अर्थात् हम स्वराज्य क्यों चाहते हैं था। टैक्स्टों
के प्रकाशन का प्रोत्साहन फ्रांस की राज्य क्रांति के जन्मदाता वाल्टेयर से लिया गया
था। मैंने अपने टैक्स्ट के दूसरे पृष्ठ पर प्रकाशन के शीर्षक में वाल्टेयर का वह ऐतिहासिक
वाक्य लिखा कि दस-दस, बीस-बीस जिल्दों वाली
हजारों पृष्ठों की मोटी-मोटी किताबों को भला कौन खरीद सकता है और उसे पढ़ और समझ भी
कौन सकता है। सच्ची बात तो यह है कि यह गरीब से गरीब किसान और मजदूरों की झोंपडियों
तक पहुंच सकने वाले पैसे दो-दो पैसे वाले टैक्स्ट ही होते हैं जिनसे सल्तनतों के तख्ते
उलट जाया करते हैं। प्रेस का मालिक मेरा एक मुसलमान दोस्त था। यह वाक्य पढ़कर वह मुझसे
पूछने लगे कि आप भी अंग्रेजी राज्य का तख्ता उलटना चाहते हैं?
मैंने जवाब दिया जनाब यह वाक्य मेरा नहीं
है बल्कि एक फ्रेंच
विद्वान तथा फिलॉसफर वाल्टेयर का है। आप तो मुसलमान हैं और आपने
फारसी की वह मिसाल नहीं सुनी है कि नकले कुफ्र-कफ्र न बासद अर्थात् कुफ्र के शब्दों
को दोहराना कुफ्र नहीं होता। हमारी कचहरियों में ऐसे भी मुकदमे पेश होते हैं जहां एक
आदमी जज के सामने पेश होकर कहता है कि अमुख आदमी ने मुझे बहुत ही गंदी गाली दी है और
जज के सामने वह आदमी उस गंदी गाली के शब्दों को दोहरा देता है तो वह उसे अपराध नहीं
समझता। प्रेस का वह मालिक मेरी बात सुनकर हंस पड़ा और मेरे टैक्स्ट की पांडुलिपि अपने
हाथ मैं लेकर बोला जनाब में इसे अवश्य ही छाप दूंगा। इसके बाद तो वह टैक्स्ट तथा मेरे
लिखे हुए दर्जनों टैक्स्ट हजारों की संख्या में छपते रहे और चलते रहे।
जब ब्रिटिश सरकार ने भगत सिंह,
सुखदेव और राजगुरु को फांसी लगाने का फैसला किया तो उस वक्त मैं मुल्तान
जेल में था। लेकिन जिस दिन यानी 23 मार्च को भगत सिंह को फांसी लगाई गई तो जेल से रिहा
होकर देहरादून अपनी पत्नी और बच्ची विजय को मिलने गया हुआ था। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी का समाचार मेरे जैसे बहुत से लोगों के लिए बेहद
दुख का समाचार था। सारे पंजाब में सनसनी और दुख की लहर फैल गई थी। उस दिन शायद कुछ
टोडियों को छोड़कर किसी घर में चूल्हा नहीं जला था। सारा पंजाब मातम में डूबा हुआ था।
औरतें सिसक-सिसक कर रो रहीं थीं। अंग्रेज सरकार ने इस भय से कि अगर उन्होंने इन तीनों
शहीदों की लाशें उनके रिश्तेदारों के हवाले कर दीं तो कहीं पंजाब में और उसके साथ ही
सारे हिंदुस्तान में तूफान खड़ा हो जाए, इन तीनों की लाशों को
रात के अंधेरे में सतलुज नदी के किनारे फिरोजपुर के नजदीक एक स्थान पर मिट्टी का तेल
डालकर जला दिया। जो क्रांतिकारी जीते हुए ब्रिटिश साम्राज्यवाद के लिए भारी आतंक और
चुनौती बने हुए थे उनकी लाशों से जैसे पूरा ब्रिटिश साम्राज्यवाद भयभीत था।
यह प्रश्न भी वाद-विवाद का रहा है कि गांधीजी की अहिंसा और असहयोग आंदोलनों
में लाहौर तथा पंजाब के लोगों की प्रतिक्रिया कैसी रही
? पंजाब मुस्लिम, हिंदू और सिख संप्रदायों में
विभाजित था। मुसलमान पचास प्रतिशत से ज्यादा थे। उनका कांग्रेस और कांग्रेसियों के
साथ कोई नाता नहीं था। हिंदू संप्रदाय सनातन धर्म और आर्यसमाजियों में बंटा हुआ था।
आर्यसमाज भी गुरुकुल पार्टी और कॉलिज पार्टी में बंटी हुई थी। हर संस्था की अपनी-अपनी
समस्याएं थीं। इसलिए कोई भी पूरी तरह से आंदोलन की ओर आकर्षित नहीं हुआ। सिखों में
भी एक वफादार ग्रुप था जो हमेशा ब्रिटिश सेना को जवान सप्लाई करने में गर्व अनुभव करता
था। बंगाल, यू.पी. और दक्षिणी भारत के मुकाबले में पंजाब में
महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन की प्रतिक्रिया बहुत कम और कमजोर रही। पंजाब सांप्रदायिक
रूप से विभाजित था। और लोग आपस में खींचातानी करते रहते हैं।
पंजाब में कांग्रेस शक्तिशाली नहीं थी। विशेष रूप से शहरी
इलाकों में कांग्रेस
का प्रभाव कम था। गांवों में सिखों की एक संख्या कांग्रेस में शामिल हुई लेकिन उसकाकारण
उनमें राजनैतिक चेतना उत्पंन होना नहीं बल्कि गुरुद्वारों में सुधार लाने की इच्छा
थी। शहरी इलाकों में नाम की कांग्रेस कमेटियां तो बनी थीं लेकिन गांवों में वह भी नहीं
थीं। पंजाब में लोग सार्वजनिक मीटिंगों में शामिल होते थे जब कोई बड़े लीडर किसी अन्य
राज्य से लाहौर तथा पंजाब के किसी शहर में आते थे। लेकिन उनकी हिदायतों की कोई व्यावहारिक
प्रतिक्रिया नहीं दिखाई दी।
'क्राई फॉर जस्टिस' के अलावा भगत सिंह की
प्रिय पुस्तकें थीं
डॉन ब्रीन लिखित 'माई फाइट फॉर आयरिश फ्रीडम'
और 'हीरोस और हीरोइन्स आफ रशिया'। भगत सिंह ने मुझे भी हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी में शामिल होने
के लिए कहा। मैंने उसे कहा 'मैंने सर्वेंट्स आफ पीपुल्स सोसायटी
के आजीवन सदस्य बनते हुए जो प्रतिज्ञा की है उसके अंतर्गत मैं हिंदुस्तान सोशलिस्ट
रिपब्लिकन आर्मी में शामिल नहीं हो सकता।' मैंने उससे कहा कि
मैंने आपकी संस्था के और नियम पढ़े हैं। मैं जानता हूं कि आपके तीन नियम हैं,
शस्त्रा और असलह को जमा करना, उसका उचित अवसर पर
इस्तेमाल करना और सारे देश में साम्राज्यवाद विरोधी प्रोपेगैंडा करना। मैंने भगत सिंह
से पूछा था कि क्या तुम जानते हो कि मैं आजकल क्या काम कर रहा हूं? मैं आजकल किताबें और पैम्पलेट लिख रहा हूं और जगह-जगह लेक्चर दे रहा हूं।
यह सुनकर भगत सिंह ने कहा, 'गुरुजी मैं
संतुष्ट हूं।' मैंने भगत सिंह से कहा। 'मैं तुम्हें आश्वासन दिलाता हूं कि तुम्हारी हिंदुस्तानी सोशलिस्ट रिपब्लिकन
आर्मी में औपचारिक रूप से प्रवेश किए बिना भी मैं ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरूध्द
अपने प्रोपेगैंडा को दुगना कर दूंगा ताकि लोग तुम्हारी संस्था और तुम्हारी कार्रवाही
को सही मानें।'
नेहरू म्यूजियम नई दिल्ली के लिए ली गई एक इन्टरव्यू में मुझसे पूछा गया कि
मेरे यह छात्रा जिनमें भगत सिंह भी शामिल था मुझसे एक अध्यापक होने के नाते प्रेरणा
लेते होंगे?
मैंने तब भी अपने उत्तर में कहा था कि हर अध्यापक अपने शिष्यों को किसी न किसी
तरह से प्रेरणा जरूर देता है और प्रभावित करता है। लेकिन विद्यार्थी भी अपने अध्यापकों
को प्रभावित करते हैं और प्रेरणा देते हैं। मैं यह बात बहुत प्रसन्नता और दावे के साथ
कहता हूं कि भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, भगवतीचरण तथा नेशनल कॉलेज में मेरे अन्य विद्यार्थियों
ने मुझे बहुत प्रभावित किया।
जहां तक भगत सिंह का स्वभाव है उसकी प्रेरणा का बहुत बड़ा
स्रोत स्वयं उसका
अपना परिवार था। उसके पिता सरदार किशन सिंह और चाचा अजीत सिंह महान देशभक्त थे जिन्होंने
अपना सारा जीवन भारत की स्वतंत्राता के लिए अर्पण कर दिया और बहुत मुसीबतें उठायीं।
भगत सिंह अपने चाचा सरदार अजीत सिंह के बहुत भारी प्रशंसक थे और औरसंख्या कांग्रेस
में शामिल हुई लेकिन उसका उन्हें अपना आदर्श मानकर उनकी इज्जत करते थे।
क्रांतिकारी भगत सिंह को तो बस देश की
आजादी की ही लग्न थी। क्रांति ही उसका धर्म था और वह किसी और देवी देवता में विश्वास
नहीं रखता था। भगत सिंह मुझसे हर राजनैतिक विषय पर बातचीत करता था। हिंदुस्तान सोशलिस्ट
रिपब्लिकन आर्मी की गतिविधियों की बातें वह मुझसे नहीं करता था। क्योंकि वह सभी गुप्त
कार्रवाहियां थीं। जो आर्मीयों के सदस्यों के बीच की बातें थीं। मैं हिंदुस्तान सोशलिस्ट
रिपब्लिकन आर्मी का सदस्य नहीं था। जब भी हम असहयोग आंदोलन की प्रगति और गांधी के विषय
में बातचीत करते तो भगत सिंह उत्तेजित होकर गांधीजी की आलोचना करता। गांधीजी के प्रति
भगत सिंह का रवैय्या सुभाषचंद्र बोस की तरह था। सुभाषचंद्र बोस ने गांधी जी से कहा
था-''बापू, आइये हम वही
भाषा सीखें जो अंग्रेज समझते हैं। अहिंसा और जुर्म सहने की फिलोस्फी अंग्रेजों की समझ
में नहीं आ सकती। उनका साम्राज्य ताकत के सहारे टिका हुआ है। हमारे पास भी अगर वैसे
ही हथियार हों तो नि:सन्देह हमारी विजय होगी। अंग्रेज चार करोड़ हैं और हम चालीस करोड़
हैं।'' भगत सिंह भी इसी तरह का दृष्टिकोण रखता था।
भगत सिंह के साथ मेरी अंतिम भेंट जनवरी
के प्रथम सप्ताह 1929
में कलकत्ता में हुई। वह अप्रैल 1929 को गिरफ्तार कर लिया गया
था। भगत सिंह ने अपने केश कटवा दिए थे। वह कोट-पैंट और हैट पहनता था। मैं भी कलकत्ता
में कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने गया हुआ था। भगत सिंह से मेरी मुलाकात कांग्रेस
अधिवेशन में नहीं बल्कि एक दोस्त के घर हुई थी। उनका नाम सेठ छज्जूराम था। सेठ छज्जूराम
एक बिजनेस मैन थे। उनके घर पंजाब के बहुत लोग आकर ठहरते भी थे। भगत सिंह वहीं ठहरा
हुआ था। मैं पोर्टिको में खड़ा था। भगत सिंह तेजी से आया और सीढ़ियों के रास्ते ऊपर
चला गया।
उस समय मेरी भगत सिंह से बातचीत नहीं हुई। हमने एक दूसरे
की ओर देखा। उसने मुझे
नमस्ते की और वह गायब हो गया।
उसके बाद भगवतीचरण मेरे पास आए और कहने लगे 'गुरुजी,
आपने भगत सिंह को देख लिया है। कृपया यह रहस्य किसी को न बतायें कि आपने
उसे कलकत्ता में देखा था।' मुझे समझ में आ गया कि क्या बात थी।
भगवतीचरण, भगत सिंह से पढ़ाई में एक साल सीनियर था।
लाहौर में भगत सिंह, सुखदेव और
भगवतीचरण अक्सर मेरे कमरे में आया करते थे। साथ ही गुसलखाना था जिसमें वे नहाते थे।
वे अपने कोट-और दूसरे कपड़े गुसलखाने के बाहर ही टांग देते थे। मैंने अक्सर उनकी कपड़ों
की जेबों में पिस्तौलों को रखे देखा था। मुझे बहुत से लोगों से पता चला कि हिंदुस्तान
सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी की शाखाएं बंगाल,बिहार और उत्तरप्रदेश
में थीं। दिल्ली और महाराष्ट्र में भी उनका प्रभाव था ।राजगुरू तो महाराष्ट्र के रहने
वाले थे।
शनिवार, 2 अप्रैल 2016
मैं तो एक मुश्ते गुबार हूं...- बटुकेश्वर दत्त
मैं तो एक मुश्ते गुबार हूं...- बटुकेश्वर
दत्त
सरदार की गुनगुनाहट आज भी मेरे कानों से
टकरा रही है- मैं तो एक मुश्ते-गुबार हूं... धोकर निचोड़े गए कपड़ों को झटके दे देकर
जैसे वह धूप में फैला रहा हो और पूरी तन्मयता के साथ गुनगुना रहा हो।कानपुर स्थित सुरेश
दादा के मेस की दूसरी मंजिल की छत पर किशोर सरदार के कपड़े धोने का दृश्य अब भी उसी
तरह अम्लान है-कंधे सहित सिर पर लिपटा केश-गुच्छ, कमर
में एक कच्छा छोड़कर पूरा नंगा बदन, जल की धार पर वह लगातार कपड़े
पटक रहा है। साबुन के शुभ्र फेन उड़-उड़कर इधर-उधर फैल रहे हैं। मैं बगल में बैठा अन्य
कपड़ों पर साबुन घिस रहा हूं और सरदार बार-बार वही एक पंक्ति दुहराये जा रहा है-मैं
तो...
सन् उन्नीस सौ चौबीस के शुरू का कोई महीना।
मैं उन दिनों कानपुर के बंगाली मिडिल स्कूल का विद्यार्थी और पारिवारिक अनुशासन की
आंखें बचाकर क्रांतिकारी दल की शाखा का एक सक्रिय कार्यकर्त्ता। श्री गणेशशंकर विद्यार्थी
के समाचार पत्र 'प्रताप' से सम्बध्द, दल के प्रमुख नेता श्री सुरेशचंद्र के निर्देशानुसार
एक शाम उनसे मिलने कम्पनी बाग गया। क्यों और किसलिए बुलाया गया था, यह पूछना दलीय अनुशासन के विरुध्द था और आदेश पर आंख मूंदकर चलना ही हमारे
विप्लवी जीवन का प्रथम पाठ। इसलिए हर तरह की परिस्थिति के प्रति अपने को तैयार कर समय
से वहां पहुंचा। सुरेश दादा नहीं थे। बाग के एक छोर से दूसरे तक मेरी चंचल निगाहें
ढूंढ़ गयीं, पर कहीं पर भी वह नजर नहीं आया। मुझे आश्चर्य हुआ
क्रांतिकारियों के कार्यक्रम में इस तरह की भूल पहले कभी देखने को नहीं मिली थी। घनघोर
अंधेरी रात में भी मूसलाधार वर्षा सिर पर झेलते हुए, सीआईडी की
निगाहें बचाता निर्दिष्ट कार्य के लिए ठीक जगह निर्धारित समय पर हाजिरी बजाने में इसके
पहले मुझसे कभी भूल नहीं हुई थी। फिर आज प्रमुख क्रांतिकारी नेता के निर्देश और कार्य
में यह अंतर क्यों?
इसी उधेड़बुन में पड़ा था कि मेरी आंखें
एक घनी, कांटेदार झाड़ी से जाकर उलझ
गयीं। क्या ही अजीब, रोंगटे खड़े कर देने के साथ-साथ हंसाने वाला
दृश्य! झाड़ी केऊपर एक सफेद पगड़ी का सिरा लगातार दायें से बायें और बायें से दायें
मोर की पखी की तरह डोल रहा था। मैं नजर गड़ाये उसे देखता रहा। बीच-बीच में वह स्थिर
हो जाता और फिर घड़ी के पेंडुलम की तरह अपनी चाल पकड़ लेता। बाग के निस्तब्ध वातावरण
में, जबकि संध्या का रक्तिम प्रकाश रात के अंधेरे में अपना मुंह
छिपाने की तैयारी कर रहा हो, कांटेदार झाड़ी के ऊपर से सफेद पगड़ी
का वह हिलता सिरा इशारे से जैसे मुझे अपने पास बुला रहा था। मैं आगे बढ़ा। झाड़ी के
समीप पहुंचते ही उस सफेद पगड़ी का अधिकारी साढ़े पांच फुट से भी लंबा एक सिख युवक मेरी
आहट पर उछलकर खड़ा हो गया। उसकी काली चमकती आंखों में शंका की भावना और लम्बी लटकती
दोनों भुजाओं पर कमीज के चढ़े आस्तीन, दृढ़ मुट्ठियों में बंद
लंबी उंगलियां, दोनों गालों पर दाढ़ी की हल्की रेखा, सिर पर पगड़ी में कैद केश-गुच्छ, जिसकी कुछ लटें बाहर
झूल रहीं थीं। मेरे सामने वह सिख युवक चैलेंज का भाव चेहरे पर लिए खड़ा था और मैं उसकी
तात्कालिक मुद्रा के प्रति उदासीन, कि तभी बगल में निश्चल गिरिराज
की भांति बैठे विप्लवी सुरेश दादा पर ध्यान गया। मुझे देखकर उनके चेहरे पर चिर-परिचित
मुस्कराहट खेल गयी और सरदार शांत पड़ा। उसकी दृढ़ मुट्ठियों की उंगलियां सहज और शिथिल
हुई। मुझ नवागंतुक को देखते ही जो चमक और खून उसकी आंखों में उतर आया था, सुरेश दादा की मुस्कराहट से जैसे पूरे चेहरे पर लालिमा बन फैल गया और मुझे
लगा अपनी अनावश्यक दृढ़ता के लिए वह कुछ झेप-सा रहा है। सुरेश दादा ने हंसते हुए हम
दोनों को आमने-सामने बैठाया और उस तरुण सरदार से मेरा परिचय कराया नाम- बलवंत सिंह
पंजाब के नेशलनल कालेज में बीए के छात्रा हैं। प्रमुख क्रांतिकारी नेता रासबिहारी बोस
निकटतम सहयोगी शचींद्रनाथ सान्याल 'बंदी जीवन' के लेखक एवं बाद में काकौरी षड़यंत्रा के प्रमुख अभियुक्त उस समय उत्तरी भारत
में क्रांतिकारी दल के प्रमुख संगठनकर्त्ता थे। पंजाब नेशनल कालेज के अध्यापक श्री
जयचंद्र विद्यालंकार की मार्फत शचींद्र दादा से उस सिख नवयुवक का परिचय हुआ और वह क्रमश:विप्लवी
संगठन में खिंच आया। उसकी क्रांतिकारी विचारधारा देखते हुए परिवार के लोग छात्रावस्था
में ही उसका विवाह कर देने का निर्णय कर चुके थे, लेकिन क्रांतिपथ
के पथिक उस तरुण को अपने विवाह का प्रस्ताव मंजूर नहीं था और उसी से मुक्ति पाने के
लिए तमाम पारिवारिक आत्मीयता एवं परिवार के लोगों से संबंध-विच्छेद कर वह लाहौर से
सुरेश दादा के आश्रय में कानपुर भाग आया था। रूसी विप्लवियों का प्रभाव उसकी स्मृतियों
में था और उन्हीं की तरह उसने भी शपथ ले रखी थी कि जीवन में न किसी से प्रेम करेगा,
न किसी का प्रेम-पात्र बनेगा, न विवाह करेगा,
न किसी का विवाह रचायेगा। उससे संबंधित ये तमाम बातें मुझे धीरे-धीरे
बाद में मालूम हुईं जब अपने पहले परिचय के बाद प्रत्येक दिन, प्रत्येक घड़ी हम एक-दूसरे के करीब आते गए। और उसी वर्ष यानी 1924 में ही!
जीवनदायनी गंगा का प्रलयंकारी प्लावन! दोनों तटों पर बसे कानपुर शहर के साथ-साथ अनगिनत
गांव उस प्लावन के शिकार हुए थे। प्लावन के शिकार ग्रामवासियों ने वृक्ष की ऊंची डाल
पर आश्रय लिया। बहते हुए लोगों को सहारा देने के लिए गंगा पुल पर मोटी-मोटी रस्सियां
बांधकर लटकायी गयीं थीं, ताकि धारा के साथ बहते हुए लोग उन रस्सियों
को पकड़कर अपने प्राण बचा सकें। शहर में बाढ़ पीड़ितों की सेवा के लिए कैम्प डाले गएं।
'तरुण संघ' नाम की एक संस्था काम कर रही थी और
हमें भी सेवा दल में काम करने की पुकार मिली। बाढ़ से क्षतिग्रस्त लोगों की सेवा में
मैं जुट गया। बलवंत सिंह साथ था। घर के अनुशासन की उपेक्षा कर किसी सार्वजनिक सेवा
कार्य के लिए घर छोड़ दिन-रात काम करने का मेरा वह पहला मौका था। बलवंत का नाता घर
से पहले ही टूट चुका था, इसलिए उसे किसी तरह के पारिवारिक अनुशासन
की चिंता थी नहीं। सेवा कार्य में जुट जाना उसके लिए अनायास था जबकि उसी काम के लिए
मेरे किशोर मन ने घर के विरुध्द पहली दफा विद्रोह का रास्ता अपनाया।
हम दोनों की डयूटी प्राय: एक साथ ही पड़ती।
रात में हम दोनों गंगा के अंधेरे तट पर खड़े होकर हाथों में जलती लालटेन लिए शून्य
में अविराम हिलाया करते ताकि प्लावन की तीक्ष्ण धारा में बहते हुए मनुष्य-मवेशी अंधेरी
रात में किनारे का संकेत पा सकें और जब कभी मवेशियों का कोई झुंड उस रोशनी के सहारे
हमारे पैरों के पास पहुंच जाता, हम उसे बाहर
निकालते, फिर उसे रखने की व्यवस्था की जाती थी।
दिन के समय हम दोनों मल्लाहों के साथ निकलते
और बाढ़ग्रस्त निराश्रित परिवारों को उनकी बची हुई सामग्री के साथ नाव पर लादकर गंगा
तट के कैम्पों में पहुंचाते किशोर सरदार का हृदय यह सब देख-देखकर पसीजता रहता और उसकी
आंखों में उस वक्त एक अव्यक्त-सी करुणा समायी होती थी। शहर के पास ही कल्याणपुर के
बाढ़ पीड़ित कैम्प का वह दृश्य आज भी मेरी आंखो में सुरक्षित है। बाढ़ की प्रलंयकारी
लीला में सबकुछ गंवा कर हताश, भूखे-असहाय
लोगों का वह हुजूम! उनकी हृदय वेधी चीख पुकार से पूरा इलाका गूंज रहा था। भोजन की प्रतीक्षा
करते स्त्री-पुरुष अलग-अलग कतारों में पत्तल के सामने बैठे थे कि तभी गर्म पूड़ियों
की टोकरी दोनों हाथों से ऊपर उठाये तरुण सरदार दिखाई पड़ा। सिर पर सफेद रेशमी पगड़ी,
बदन में साधारण कपड़े की कमीज जिसकी दोनों आस्तीनें ऊपर चढ़ी थीं। मुझसे
आंखें मिलते ही उसके होठों पर स्वत: स्फूर्त मुस्कान एवं आंखों में चमक कौंध उठी,
लेकिन बातचीत का समय कहां।वह उत्साह एवं उमंग के साथ भूख से बेचैन लोगों
की कतार की तरफ बढ़ गया।
बाढ़ पीड़ितों की सहायता-सेवा के उस दौर
ने हम दोनों को एक-दूसरे के करीब लाने में काफी मदद की। उस दिन क्षुधित,
सर्वहारा जनों के बीच पूड़ियां बांटने का सरदार का अंदाज, काम के प्रति उसकी लगन एवं निष्ठा आज भी मैं नहीं भूल पा रहा हूं। पूड़ियां
परोसने वाले उसके हाथों ने बाद के क्रांतिकारी जीवन में उसी निष्ठा के साथ पिस्तौल
या बम भी चलाये। उस रोज किसे मालुम था कि परवर्ती क्रांतिकारी जीवन में हमें अति साधारण
भोजन भी नियमित रूप से नसीब न होगा या यह कि पूड़ियां परोसने वाले उन हाथों पर सूखी
रोटी और नमक ही शेष जीवन के आधार होगें।
उन दिनों हम दोनों के किशोर जीवन में एक-दूसरे
के प्रति आकर्षण भाव के साथ-साथ जो सबसे बड़ा आकर्षण था,
वह शहर (कानपुर) के पास कनालफाल के समीप गंगा के तट पर बैठ उसकी सुषमा
को अनवरत निरखते रहना और बीच-बीच में किसी विषय, किसी बात या
योजना पर परस्पर विचार-विमर्श करना। इसी सिलसिले में अकसर हम क्रांतिकारी जीवन के आने
वाले दिनों की कल्पना में तल्लीन हो जाया करते। प्रसिध्द क्रांतिकारी जीवनियों या क्रांति
से संबंधित साहित्य का पाठ हम यहीं बैठकर किया करते। एक ओर गंगा की अश्वेत जलधारा गरज
के साथ लगातार आगे की ओर बढ़ती और दूसरी ओर क्रांतिकारी साहित्य का प्रभाव हमारी किशोर
रंगों में खून की रफ्तार बढ़ा जाता। पानी का प्रचंड वेग एवं उसकी अथक गतिशीलता की छाप
हमारे ऊपर सर्वाधिक पड़ी और शायद इसीलिए गंगा के तट का आकर्षण हम दोनों के मन में सदैव
बना रहा।
एक शाम हम गंगा के तट पर बैठे अपनी क्रांति
संबंधी कल्पनाओं को अमली जामा पहनाने के तरीकों पर विचार-विमर्श कर रहे थे कि अचानक
ही आकाश काले बादलों से पटने लगा। गंगा पार की बस्तियां धुधली पड़ने लगीं,
हवा का वेग बढ़ गया और थोड़ी ही देर में बादलों की भीषण गड़गड़ाहट से
लगा आसमान फट जायेगा। क्षण भर में ही प्रकृति ने भयंकर रूप धारण कर लिया था। इससे पहले
कि हम उठकर वहां से शहर की ओर चल देते, बूंदाबांदी शुरू हो गयी
थी और शहर के फूलबाग स्थिति 'एडवर्ड मेमोरियल हॉल' पहुंचते-पहुंचते जमकर वर्षा होने लगी थी। यहां आकर हमें मालूम हुआ कि साथ की
बहुमूल्य पुस्तक 'हीरो एंड हीरोइन ऑफ रशिया' तो हम जल्दबाजी में गंगा किनारे ही छोड़ आए हैं। रूस पर जारतन्त्र के विरुध्द
रूसी युवक-युवतियों के सशस्त्र संग्राम की वह इतिहास-पुस्तक दुर्लभ होने के कारण हमारे
लिए बहुत ज्यादा मूल्यवान थी, लेकिन उस घने अंधकार में वर्षा
के साथ प्रचंड वायु का वेग सम्भालता हुआ दो मील का रास्ता तय करके उसे लाये कौन। मेरे
जाने की बात सरदार को नागवार सी लगी। शरीर में वह मुझसे निश्चित रूप से तगड़ा था और
अपने उसी तगड़ेपन की दलील देकर उस वक्त उसने मुझे जाने से रोक दिया और खुद लम्बी डग
भरता हुआ अंधेरे में गुम हो गया।उसे जाते हुए कुछ ही क्षण गुजरे होंगे कि मेरी भावुकता
ने मुझे झिंझोड़ा और मैं भी उस बीहड़ अंधकार में सरदार के पीछे हो गया। घने अंधकार
में बेतहाशा भागते मेरे पैरों को अपने भागने का अहसास तब हुआ जब वे बीच सड़क पर बैठे
सरदार से टकराये। सिर की रेशमी पगड़ी आधी खुलकर कीचड़ में सनी थी, एक हाथ से पुस्तक एवं दूसरे से अपने पैर का अंगूठा थामे वह लथपथ पड़ा था। पैर
के अंगूठे का नाखून उखड़ गया था। पगड़ी चीरकर मैंने पट्टी बांधी और उसे सहारा देकर
सुरेश दा के मेस भीगते हुए वापस आया। उससे अलग अपने घर लौटकर मेरा मन सरदार के दुख
से बेचैन था। मैं वहां से रूई-पट्टी, जैम्बक की डिबिया लेकर उसी
मूसलाधार वर्षा में सरदार के पास पहुंचा, उसके अंगूठे का खून
साफ कर उस पर मरहम पट्टी की और रात भर उसके पास बैठा रहा। सुबह होते ही घर के अनुशासन
की सुधि आयी। उस दिन परिवार से मिलने वाली तमाम यंत्राणाएं मैं धैर्यपूर्वक सह गया
सिर्फ इस तसल्ली पर कि अपने प्रिय मित्र के प्रति अपना छोटा-सा कर्त्तव्य निभाया। और
सरदार का वह स्नेहयुक्त आवेश- 'पीओ, देर
न करो। तुम्हें पीना ही पडेग़ा। दूध वाले की दुकान के सामने गर्म दूध से भरा गिलास
लिए वह मुझे आदेश दे रहा है। दूध से उन दिनों अरुचि नहीं थी लेकिन भरपेट भोजन के बाद
पक्का आधा सेर दूध चढ़ा जाना मेरे पेट के लिए मुश्किल था। आज भी दिल्ली और आगरा स्थित
दूध की दुकानों के दृश्य मेरी आंखों के सामने आ जाते हैं। उन्हीं दुकानों के मालिक
बाद में हमारी उपस्थिति दिल्ली और आगरा में सिध्द करने के लिए हमारे मुकदमों में आए
थे।
दरअसल, भोजन
के बाद गर्मागर्म दूध का गिलास चढ़ा जाने का पाठ मुझे सरदार ने ही दिया। जब कभी पैसा
पास होता वह दूध पीने के विलास से नहीं चूकता था। जहां रोटी का लुकमा भी निश्चित न
हो वहां दुग्धपान विलास की ही श्रेणी में आएगा न? और उसे सिर्फ
तीन पाव गर्मागर्म दूध से ही संतोष नहीं था बल्कि गिलास के दूध पर कम-से-कम डेढ़ छटांक
मोटी मलाई का टुकड़ा भी अलग से पड़ना चाहिए। मलाई न रहने पर घी का तडका (छोंक) वह गर्म
दूध में दे लेता था। शरीर में खून बढ़ाने का उसका यही उपयुक्त नुस्खा था। दूध के प्रति
एक असीम आसक्ति उसके मन में थी। स्वास्थ्य के प्रति वह कभी उदासीन न रहा, हालांकि बाद के पार्टी जीवन में नियमित रूप से हमें भोजन भी नसीब नहीं हुआ।
विप्लवी जीवन की अनिश्चित परिस्थिति एवं जीवन-धारण के लिए सीमित साधन और व्यवस्था के
अभाव में भी वह शरीर और स्वास्थ्य के प्रति हमेशा सचेत रहा। यद्यपि जीवन के प्रति उसके
मन में जबरदस्त आसक्ति थी, तथापि उसका कहना था कि जीवन जब अधिक
सुंदर और प्रिय मालूम पड़ने लगे, तभी अपने आदर्श के लिए उसे बलिदान
करना चाहिए।
संस्मरण की इस कड़ी के रूप में एक और दृश्य
मेरी आंखों के सामने अब भी कौंध जाता है...
कानपुर स्टेशन का जन-प्लावित प्लेटफार्म,
'जो बोले सो निहाल.... सत्श्री ..अ...का....ल...' के गगनभेदी नारे से दिग-दिगंत गूंज उठा है। गुरु के बाग के सत्याग्रही सिख
मोर्चा डालने के लिए पंजाब जा रहे हैं। उन दिनों हर स्टेशन पर, जहां ट्रेन रुकती थी, अधीर जनता सत्याग्रहियों के दर्शनार्थ
टूट पड़ती थी। प्रत्येक स्टेशन पर वीर सत्याग्रहियों को भोजन कराने के लिए लंगर खोले
गए थे। कानपुर स्टेशन पर भी ऐसी ही व्यवस्था थी और सत्याग्रहियों की एक झलक लेने के
लिए जनता उमड़ पड़ी थी। फूलों और फूल-मालाओं की वर्षा! मैं भी स्टेशन गया था। अपार
जनसमूह के बेग को ठेलकर सत्याग्रहियों के डिब्बों तक न पहुंच पाने की मजबूरी में ओवर-ब्रिज
पर जाकर खड़ा हो गया और असंख्य सिरों से पटे प्लेटफार्म का दृश्य वहीं से देखने में
तल्लीन था कि भीड़ को चीरती मेरी दृष्टि अपने सरदार मित्र पर पड़ी वही रेशमी पगड़ी
और सफेद कमीज दोनों आस्तीनें बांह पर चढ़ी हुईं । एक हाथ में शरबत की बाल्टी और दूसरे
में लंबा-सा गिलास। अपने कंधों से भीड़ को ठेलता हुआ वह सत्याग्रहियों के हाथों में
शरबत के गिलास पकड़ा रहा था। भीड़ की खींचातानी में पगड़ी सिर से खिसककर कंधें पर लटक
आई है जिसकी चिंता उसे नहीं थी। कम-से-कम समय में ज्यादा-से-ज्यादा सत्याग्रहियों की
प्यास बुझा पाने की व्यग्रता उसके चेहरे, आंख और चाल में स्पष्ट
देखी जा सकती थी। ट्रेन के एक सिरे से दूसरे सिरे तक उसकी विश्रामहीन भाग-दौड़! मेरे
प्रिय साथी सरदार का यह एक और रूप था।
थोड़ी देर ठहरने के बाद ट्रेन चल पड़ी।
फिर एक बार सत्श्री अकाल के नारे से आकाश गूंजा और कोलाहल मुखरित स्टेशन का प्लेटफार्म
खाली होना शुरू हो गया। भीड़ पिघलने लगी। जो सत्याग्रहियों को देखने,
उनसे मिलने-मिलाने आए थे, बाहर कीओर खिसकने लगे
और बच गया हाथों में गिलास-बाल्टी लिए मेरा वह सरदार मित्र! मैं ओवर-ब्रिज से उतर उसकी
बगल में खड़ा हुआ पर उसे जैसे किसी बात की सुध नहीं थी। ट्रेन जाने की दिशा में मंत्रमुग्ध
आंखों में उदासी लिए अब भी वह खाली पटरी देखे जा रहा था। अपने कंधे पर मेरे हाथ का
दबाव महसूस कर मुड़ा और मुस्कराकर एक हाथ से मेरे पंजे को दबाया बोटू ...। उसकी आंखों
में कोई अदृश्य निर्णय कौंध उठा था उस घड़ी।
उस दिन लगभग गुमसुम और उदास वह जनशून्य
स्टेशन से मेरे साथ बाहर हुआ था और फिर वह दिन भी आया जब दल के आदेशों पर उसे कानपुर,
'प्रताप', सुरेश दादा और मुझे छोड़कर एक छोटे स्कूल
का हेडमास्टर बनकर अन्यत्र जाना पड़ा। विप्लव दल के नियमानुसार कुतूहलवश जरूरत से ज्यादा
किसी का परिचय प्राप्त करना हमारे लिए मना था और सरदार शायद सब दिन ऐसा अनुभव करता
रहा था कि कोई रहस्य वह अपने एकमात्र एवं अनन्य साथी मुझसे छिपाता रहा है, वरना कानपुर से विदाई लेने के दिन ही क्या खुलता। शिक्षक का पद ग्रहण करने
जाते वक्त मुझसे मिलने आया था और हमारी आत्मीय घनिष्टता के बावजूद दल की मर्यादा रखने
के लिए अब वह जिस रहस्य को छिपाये हुए था, विदाई के क्षण उसे
व्यक्त किये बगैर न रह सका। जिस तरुण बलवंत सिंह के स्नेहपाश में मैं अब तक बंधा था,
वही सरदार भगत सिंह के रूप में मुझसे विदा ले गया।
यही उसका असली परिचय था लोगों ने उसे बाद
में विप्लवी सरदार भगत सिंह के रूप में जाना, लेकिन
मेरे लिए तो वह सब दिन मानवीय गुण-सम्पन्न, भाव में गम्भीर भावुकता
से ओतप्रोत बलवंत सिंह बना रहा। बाद की हमारी मैत्री परवर्ती क्रांतिकाल में एक-दूसरे
के साथ सहयोगी की भूमिका, उसकी फांसी से लेकर मेरे जलावतन तक
का प्रसंग इस कड़ी की अगली कहानी है।
सन् उन्नीस सौ सत्ताईस-अट्ठाईस का समय
हमारे राष्ट्रीय जीवन में क्रांति के साथ-साथ संकट का काल भी कहा जा सकता है क्योंकि
उन्हीं दिनों हमारी आजादी की लड़ाई का स्रोत एक नये रास्ते की ओर प्रवाहित हुआ। उस
वक्त तक देशवासी क्रांतिकारी आंदोलन और उसकी विचारधाराओं से ज्यादा परिचित नहीं थे
और अंग्रेज सरकार क्रांतिकारियों को साधारण खूनियों तथा डकैतों की श्रेणी में डालकर
देश की जनता को सब दिन गुमराह करने का प्रयत्न करती रही थी। ब्रिटिश सरकार का यह कहना
था कि विप्लवी देश में संत्रास एवं अराजकता फैलाना चाहते हैं जबकि विप्लवी देश में
परिवर्तन के प्रति आग्रही थे। जनसाधारण को विप्लवी के प्रति जागरुक बनाकरआर्थिक परिवर्तनों
द्वारा शोषणविहीन समाज की स्थापना ही उनका लक्ष्य था। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए यह
जरूरी था कि क्रांतिकारियों की ओर से देशवासियों के सम्मुख एक निश्चित कार्यक्रम पेश
किया जाए और देश के नेताओं को असेंबली भवन के भीतर वैधानिक कार्यक्रमों के दांव-पेच
से मुक्त कर जनांदोलन के प्रति उत्साहित किया जाए, दिल्ली
की केंद्रीय असेंबली में अंग्रेज सरकार की ओर से भारत के लिए स्वायत्ता शासन की मांग
बार-बार ठुकरा दी गयी थी। जन नेताओं के लाख विरोध के बावजूद यहां की जनता के मानवीय
अधिकारों को विलुप्त करने के लिए केंद्रीय धारा सभा से टे्रड डिस्प्यूट बिल स्वीकृत
करा लिया गया था। कानून स्वीकृत हो जाने के फलस्वरूप देश के करोड़ों भूखे-मेहनतकश लोग
अपनी आर्थिक दशा सुधारने के प्रारंभिक स्वत्व एवं एकमात्र उपाय हड़ताल से वंचित कर
दिए गए थे।
केंद्रीय विधानसभा में हमारे जन-प्रतिनिधियों के उस अपमान और उस अमानुषिक बर्बरतापूर्ण
कानून द्वारा देश की करोडों ज़नता पर जो हमला हुआ था उसी के विरोध में भारतीय क्रांतिकारी
संस्था 'हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन
आर्मी' द्वारा केंद्रीय असेंबली के सभाकक्ष में बम डालकर गोरी
हुकूमत को एक चेतावनी देने के सुझाव पर आगरा हेड क्वार्टर में आलोचना गोष्ठी की बैठक
चल रही थी। असेंबली में बम डालकर आत्मसमर्पण करना एवं बाद में मुकदमे के दौरान अभियुक्त
के कटघरे में खड़े होकर भारतीय क्रांतिकारी दल की ओर से विप्लवियों के विचारों,
आदर्शों एवं उद्देश्यों का दिग्गर्शन कराने के लिए एक विशद राजनीतिक
वक्तव्य देने की सूझ सरदार भगत सिंह के मस्तिष्क की ही उपज थी। लेकिन इसे निभाये कौन?
यानी केंद्रीय असेंबली में बमफेंकने जैसा जोखिम भरा कार्य कौन करे?
इसे पूरा करने का सीधा एवं साफ अर्थ था मृत्यु! लाख सावधानी के बावजूद
असेंबली भवन के फर्श पर बम फटने के साथ किसी की मृत्यु की सम्भावना स्पष्ट थी और उसके
बाद वहां नियुक्त सुरक्षा पुलिस या सार्जेंट द्वारा बम फेंकने वाले को तुरंत मौत के
घाट उतार देना भी लगभग निश्चित ही था। बावजूद इसके कि हम सभी क्रांतिकारी देश को स्वतंत्र
कराने की बलिदानी भावना से प्रेरित हो, प्रियजनों से नाता तोड़,
किसी भी क्षण मृत्यु का आलिंगन करने का संकल्प ले, सिर पर कफन बांध, गृह-त्यागी बनकर निकल पड़े थे,
फिर भी विचार गोष्ठी में बैठकर अपनी-अपनी सुरक्षा पर नजर गड़ाये दूसरे
साथी को निश्चित मौत का फरमान सुनाना किसी के लिए भी संभव न था। ऐसा कोई व्यवहार किसी
के भी मन को संदिग्ध बना सकता था। सरदार ने सहर्ष आगे बढ़कर निश्चित मौत से खेलने का
बीड़ा उठाया, साथ-साथ मैंने भी। वर्षों पहले कानपुर में गंगा
के किनारे बैठे-बैठे जिन अनागत दिनों की कल्पनाएं हम बार-बार किया करते थे,
कि एक साथ ही दोनों देश की स्वतंत्राता के लिए आत्माहुति देंगे,
उसे साकार करने का समय आ गया था...
हम दोनों- सरदार और मैं- बम के साथ आगरे
से दिल्ली पहुंचे। लगभग महीने भर तक दिल्ली में ही टिके रहे। मैं हाफ पैंट,
कमीज और जूता पहनता था और सरदार फ्लैट हैट लगाने लगे थे। प्रत्येक संध्या
बम को अखबार में ढंककर कोट की नीचे वाली जेब में रखे हम साथ-साथ असेंबली भवन जाते,
वहां का वातावरण परखते, पहरे पर संतरियों की गतिविधि
देखते और अनुमान लगाते-कैसे अपने उद्देश्यों में सफल हो सकेंगें।
इसी बीच एक दिन सरदार ने साथ-साथ फोटो
खिंचवाने की बात रखी। कुछ देर तो मैं टालता रहा, लेकिन
सरदार जब जिद पर उतर आए तब मुझे भी झुकना पड़ा, और वही एकमात्रा
तस्वीर हम दोनों की आखिरी यादगार बनकर रह गयी।
फिर आया वह दिन जिसके लिए हम आगरे से चलकर
दिल्ली आए थे और लगातार महीने भर तक बिना नागा असेंबली भवन के अगल-बगल चक्कर लगाते
रहे थे। यानी 8 अप्रैल, 1928। दिन के ग्यारह बजे
स्थान केंद्रीय असेंबली हॉल जिसे अब संसद कहा जाता है। ट्रेड डिस्प्यूट बिल और पब्लिक
सेफ्टी बिल पर जनमत जानने के लिए प्रस्ताव स्वीकृत हो गया था। अध्यक्ष की कुर्सी पर
सरदार बल्लभ भाई पटेल विराजमान थे। ट्रेजरी बेंचों पर सर जेम्स क्रेरर एवं सर जार्ज
शुस्टर। विशिष्ट व्यक्ति के रूप में वायसराय की सीट पर, दर्शक
दीर्घा में, सर जान साइमन।
सरकारी बैंचों के सामने विरोधी सीट पर पंडित मोतीलाल नेहरू,
पंडित मदनमोहन मालवीय एवं डा. मुंजे आदि। बम हम दोनों ही की जेब में
थे। ऊपर से पीछे की खाली बैंचों को लक्ष्य करके हमने बम फेंके। जोरों का धमाका हुआ,
लेकिन चूंकि किसी को मारने का इरादा तो था नहीं, इसीलिए कमजोर बम बनाये गए थे ताकि धमाके पैदा करने के अलावा और किसी तरह का
भयंकर, घातक या मारक प्रभाव उससे पैदा न हो सके। 'इंकलाब जिंदाबाद' एवं 'साम्राज्यवादी
शासकों के बहरें (राष्ट्रीय मांगों के प्रति) कानों को खोलने के लिए जोरदार आवाज की
जरूरत है' के नारों एवं फटे बम के धुएं से हॉल भर गया और भगदड़
मच गयी। डर के मारे सर जेम्स क्रेरर बैंचों के नीचे जा छिपे। बम के साथ फेंके गए लाल
रंग के छपे पर्चें धुएं की सतह पर हॉल में इधर-उधर तैर रहे थे।
उस पर्चें में गोरी हुकूमत की आंखें खोलने
के लिए भारतीय क्रांतिकारी दल के उद्देश्यों का स्पष्ट हवाला दिया गया था-'दो नगण्य इकाइयां (सरदार भगत सिंह एवं बटुकेश्वर दत्ता) को कुचलने से राष्ट्र
नहीं दबेगा... सरकार इस बात को समझे कि पब्लिक सेफ्टी तथा ट्रेड डिस्प्यूट बिल एवं
लाला लाजपत राय की निर्मम हत्या के विरुध्द जनमानस का विरोध प्रदर्शित करने के अतिरिक्त
हम इतिहास को भी यह साक्ष्य देना चाहतेहैं कि व्यक्तियों का दमन करना आसान है,
लेकिन विचारधाराओं का दमन नहीं किया जा सकता। विशाल साम्राज्य नष्ट हो
जाते हैं लेकिन विचारधारा नष्ट नहीं होतीं। बोरबोन और जार का पतन हो गया, किंतु क्रांतिकारी आगे बढ़ते गए, हमें, जिनको मनुष्य जीवन से प्रेम है और जो एक बड़े ही गौरवमय भविष्य की कल्पना करते
हैं, व्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्राता के लिए बाध्य होकर मानव-रक्त
बहाना पड़ रहा है यह आवश्यक है क्योंकि जो मनुष्यता के लिए शहीद होते हैं, उनके त्याग से क्रांति की वह वेदी बनती है जहां से मानव द्वारा मानव के शोषण
का अंत हो सकेगा-इंकलाब जिंदाबाद'।
अपनी पूर्व योजनाओं के अनुसार एवं मार्शल
लॉ जारी न हो या बम फेंकने के अपराध में निर्दोष व्यक्ति न पकड़ लिए जायें,
हम दोनों ही ने आत्मसमर्पण कर दिया। तत्कालीन वायसराय लार्ड इरविन ने
उस घटना का तात्पर्य अच्छी तरह समझा और बम विस्फोट के बाद ही व्यवस्थापिका सभाओं के
संयुक्त अधिवेशन में भाषण के समय चर्चा करते हुए बताया कि बमों का यह प्रकार किसी एक
व्यक्ति पर नहीं बल्कि एक संस्था (अंग्रेजी शासन) पर किया गया है।
हम दोनों को दिल्ली के दो अलग-अलग थाना
में रखा गया। मुकदमे शुरू हुए फिर हमारा स्थानान्तरण दिल्ली जेल में हुआ जहां एक साथ
सटी दो अलग-अलग कोठरियों में हमें रखा गया। बीच में खड़ी अभेद्य दीवार। नियाज अली हमारा
जेल वार्डन था जिसे एक अरसे तक हम हाड़-मांस का न होकर पत्थर का बना समझते रहे। नियाज
अली ने कभी मुझे और सरदार को एक साथ न होने दिया। स्पर्शानुभूति की बात तो दूर रही,
उसने कभी हम दोनों को एक-दूसरे का चेहरा तक नहीं देखने दिया,
उन दो-चार दिनों को छोड़कर जबकि इकट्ठे हमें अदालत ले जाया जाता था।
दिल्ली की उस विशेष अदालत में न्यायाधीश के सामने प्रविष्ट होते समय अपने-अपने हाथ-पांवों
में पड़ी बेड़ियां की झंकार के साथ हम 'क्रांति चिरंजीवी हो'
का नारा लगाते। पूरा न्यायालय गूंज उठता था, और
तभी से यह नारा राष्ट्रीय जीवन में व्याप्त हो गया। बम विस्फोट के साथ पहले-पहल सरदार
के मुंह से निकली 'इंकलाब जिंदाबाद' की
घोषणा जैसे पूरे राष्ट्रीय जनजीवन में व्याप्त हो गयी।
मुकदमे के दौरान न्यायाधीश महोदय ने सरदार
से 'क्रांति' शब्द की
व्याख्या करने को कहा तो सरदार ने बताया- 'क्रांति या विप्लव
खून-खच्चर ही का रास्ता नहीं, और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिशोध
का कोई स्थान है। बम और पिस्तौल ही क्रांति का धर्म हो, ऐसा भी
नहीं है। क्रांति से हमारा मतलब है कि वर्तमान समाज और शासन व्यवस्था जो स्पष्टत: अन्याय
एवं अत्याचारों पर आधारित है, परिवर्तित हो। आप पूर्ण परिवर्तन
के द्वारा ऐसी व्यवस्था की स्थापना करें जिसमें सर्वसाधारण की सत्ता कायम हो सके।'
आसिफ अली साहब ने हमारी ओर से वकालत की
थी और हमारे गवाह बने थे डॉ. मुंजे एवं पंडित मदनमोहन मालवीय। न्यायालय ने हम दोनों
को आजीवन काले पानी की सजा दी। 1930 में 'लाहौर
षडयंत्र केस' के अंत में जब मैं सदा के लिए सरदार से बिछुड़कर
मुलतान जेल भेज दिया गया, तब सरदार ने मेरी बहन को एक पत्र लिखा
था जो आज भी मेरे जीवन की अमूल्य निधि है। 17 जुलाई, 1930 को
लाहौर सेंट्रल जेल से लिखा गया वह पत्र सरदार के व्यथातुर हृदय की अभिव्यक्ति हैं-'बटुक की जुदाई आज मेरे लिए असह्य हो रही है। इस बिछोह से मैं एकदम स्तब्ध सा
हो गया हूं... एक-एक पल मेरे लिए असह्य भार बन गया है। सचमुच, अपने भाई एवं परिजनों से भी ज्यादा प्रिय उस मित्र से अलग हो जाना आज मेरे
लिए अत्यन्त ही कठिन गुजर रहा है...हमें सबकुछ धैर्यपूर्वक सहन करना है और आपसे भी
हिम्मत के साथ परिस्थिति का सामना करने का अनुरोध करूंगा ।'
'लाहौर षडयंत्र केस' में जब सरदार को फांसी की सजा का फैसला सुनाया गया तब अपने एक पत्र में उसने
मुझे लिखा:
'प्रिय बटुक,
दीर्घकाल तक हम लोगों का विचार-प्रहसन
चलने के बाद अब उस पर यवनिका पात हुआ। न्यायाधीशों ने सजाएं घोषित कर दी हैं और उन
सजाओं की इत्तला हमें भेज दी गयी है। मुझे फांसी की सजा मिली है।
तुम्हें मालूम है कि मैं लाहौर जेल की
उन्हीं फांसी की कोठरियों में हूं, जहां चंद
रोज पहले तुम मेरे साथ थे। इन फांसी की कोठरियों में कुल पैंतालीस मृत्यु-दंड प्राप्त
बंदी हैं जो प्रतिक्षण अपनी अंतिम घड़ी की प्रतीक्षा कर रहे हैं। वे अभागे बन्दी फांसी
के फंदे से छूट पाने के लिए दिन-रात भगवान से प्रार्थना कर रहे हैं। उनमें से अधिकांश
अपने कृत्यकर्म के लिए अत्यंत ही अनुलप्त हैं और इन अभागे बन्दियों के बीच मैं ही एक
ऐसा व्यक्ति हूं, भगवान के बदले अपने आदर्शों में ही जिसकी अविचल
आस्था है, एवं जिस आस्था के लिए मैं मृत्यु का आलिंगन करने जा
रहा हूं, इसके लिए संतुष्ट हूं। तुमसे मेरा बिछोह अत्यंत ही पीड़ादायक
है, लेकिन इससे कुछ विशेष उद्देश्यों की पूर्ति होगी। मैं फांसी
के तख्ते पर अपना प्राण विसर्जित कर दुनिया को दिखाऊंगा कि क्रांतिकारी उद्देश्यों
की पूर्ति के लिए खुशी-खुशी आत्म-बलिदान कर सकता है। मैं तो मर जाऊंगा, लेकिन तुम आजीवन कारावास की सजा भुगतने के लिए जीवित रहोगे और मेरा दृढ़विश्वास
है कि तुम यह सिध्द कर सकोगे कि विप्लवी अपने उद्देश्यों के लिए आजीवन तिल-तिल कर यंत्राणाएं
सहन कर सकता है। मृत्यु दंड पाने से तुम बचे हो और मिलने वाली यंत्राणाओं को सहन करते
हुए दिखा सकोगे कि फांसी का फंदा, जिसके आलिंगन के लिए मैं तैयार
बैठा हूं, यंत्रणाओं से बच निकलने का एक उपाय नहीं है। जीवित
रहकर विप्लवी जीवन भर मुसीबतें झेलने की दृढ़ता रखते हैं।
तुम्हारा-भगत
सिंह'
सरदार अपने विचारों या व्यवहारों में कट्टरपंथी
कभी नहीं रहे मस्तक पर सिख धर्म के द्योतक लंबे बाल, कंघा,
कच्छा और कड़ा लेकर वह कानपुर आए थे, लेकिन बाद
के दिनों में परिस्थिति के अनुसार उन्होंने खुद को दूसरे रूप में ढाल दिया। लंबे-लंबे
बाल कटवाकर नीचे से ऊपर तक सूट एवं हैट से लैस उन्होंने अंग्रेज साहबों का रूप धारण
किया। हिंसा एवं अहिंसा की उधेड़बुन में उनके विचार उलझे हुए नहीं थे, न ही उनके मन में कभी किसी के प्रति हिंसा या द्वेष पनपा। राजनीतिक बंदियों
को युध्दबंदी (प्रिजनर ऑफ बार) की स्वीकृति दिलाने एवं तदनुसार उनके सम्मानपूर्वक व्यवहार
की मांग पर बंदियों द्वारा सामूहिक अनशन का संग्राम आरम्भ करना तथा उसी संग्राम के
द्वारा देश की मुरझाई हुई चेतना में फिर से स्पंदन जगाने की कल्पना सरदार ने ही की
थी और उसी संग्राम के फलस्वरूप पूरे देश में एक अभूतपूर्व परिस्थिति उत्पन्न हुई एवं
बाद में 1930 का जनांदोलन जिससे प्रेरित हुआ। खुद सरदार ने जेल के भीतर 14 जून,
1929 से प्रारंभ करके लगातार 127 दिनों तक भूख की अनन्त ज्वाला में घुलते
हुए मौत की प्रतीक्षा की थी...
गंभीर मननशीलता,
राजनीतिक दूरदर्शिता एवं आत्मबल पर अटूट विश्वास सरदार के अन्य गुण थे।
दूसरे देश के क्रांतिकारी आंदोलनों के साथ पराधीन भारतवर्ष की राजनीतिक परिस्थिति का
तुलनात्मक विचार सरदार के चिंतन का एक विशिष्ट पक्ष था। बलिष्ठ हाथों में पिस्तौल लेकर
जिस प्रकार लक्ष्य- भेद करने में वह माहिर थे, उसी प्रकार उनकी
सुंदर उंगलियां लेखनी चलाने में माहिर थीं।
'प्रताप' में काम करते समय डैन ब्रीन लिखित
'माई फाइट फार आइरिश फ्रीडम' का बड़ा ही सुंदर
अनुवाद उन्होंने किया था। दिल्ली के साप्ताहिक 'अर्जुन'
के सम्पादकीय में भी वह लेखनी चलाते रहे। उन्हीं दिनों पंजाब के विद्रोही
किसान आंदोलन, कूका विद्रोह और बब्बर अकाली आंदोलन पर लिखी उनकी
पांडुलिपियां मैंने पढ़ी थीं। फांसी के पहले पंजाब के तत्कालीन गवर्नर के पास उन्होंने
अपने साथ फांसी की सजा से दंडित अन्य साथियों को फांसी के फंदे से लटकाने के बजाय युध्दबंदियों
की भांति गोली से उड़ा दिए जाने के लिए जो आवेदन पत्र भेजा था। उसकी शैली एवं दलील
दोनों ही अपने ढंग की अकेली चीज थीं यानी सरदार न सिर्फ एक क्रांतिकारी भर ही थे बल्कि
इसके साथ-साथ एक दूरदर्शी राजनेता, सफल अनुवादक, पत्रकार एवं चिंतक का अद्भुत सम्मिश्रण उनके व्यक्तित्व में मौजूद था।
अपने ध्येय के लिए जीवन की आहुति चढ़ा देने की प्रबल प्रेरणा एवं आकांक्षा से
ही सब दिन प्रेरित हुए और निश्चित मृत्यु की ओर बढ़ते गए। अनासक्त हृदय का कोई व्यक्ति
ही इस प्रकार संसार की स्थूल वासनाओं से मुक्त होकर मृत्यु को सहर्ष गले लगा सकता है।
स्वामी विवेकानंद की वाणी, सरदार के
संदर्भ में, मुझे हमेशा याद आती रहती है-'यदि तुम्हारा मन अनासक्त है। तो तुम्हारी भक्ति भी अपरिसीम है। संसार की कोई
भी ताकत तुम्हारी गति का प्रतिरोध नहीं कर सकती'। और इसमें संदेह
नहीं कि अंग्रेज शासकों की विशाल राक्षसी शक्ति भी सरदार की जीवन गति का प्रतिरोध कर
पाने में सब दिन असमर्थ रही। 7 अक्टूबर, 1930 को फांसी की सजा
सुनाई गयी थी और 23 मार्च, 1931 की शाम उन्हें फांसी दे दी गयी।
वह सब दिन कहा करते थे मातृभूमि की बलिवेदी पर कौन पहले जायेगा, कौन पीछे, नहीं मालूम लेकिन चाहे जो कोई पहले जाए उसके
लिए हम आंसू नहीं बहायेंगे बल्कि उसके अधूरे कार्यों को पूरा करने की कोशिश करेंगे।
हमारा बलिदान यों ही नहीं जायेगा बटुक! यह और बात है कि आने वाले परिणामों को देखने
के लिए हम संसार में नहीं रहें...
सरदार सचमुच आजादी देखने के लिए नहीं रहे,
लेकिन उनका बलिदान भी यों ही नहीं गया। आज सोचता हूं तो लगता है जैसे
स्पष्ट दृष्टि में आने वाला समय बिल्कुल ही स्पष्ट और साफ होकर कैद था- शहादत के बाद
चाहे जितना समय लगे, देश आजाद होगा और जरूर होगा।
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